राजेश लक्ष्मण गावड़े की कलम से
राजकोट। पांच साल पहले सूरत के तक्षशिला कोचिंग में आग लगी थी, 22 बच्चों की मौत हुई। शनिवार को राजकोट के गेमिंग जोन में आग लगने से 32 लोगों की मौत हो गई, इसमें भी कई बच्चे शामिल हैं जो वहां पर छुट्टी का मजा लेने गए थे। आग से मौतों की यह कोई पहली और आखिरी कहानी नहीं है यहां पर। इन पांच सालों में आठ हादसे हुए, लेकिन सुधरा कुछ भी नहीं। न सरकार संवेदनशील बनीं और न ही प्रशासन ने कोई कदम उठाए। हादसा हुआ, सरकारी सक्रियता आई, नियम-कायदे की बात की गई और फिर सब कुछ भूल गए। अगर नियम-कायदे जमीन पर होते तो शायद राजकोट जैसे हादसे को रोका जा सकता था।
भला हो हाईकोर्ट का जिसने छुट्टी के दिन भी इस मसले पर सुनवाई की और राजकोट के साथ, अहमदाबाद, वडोदरा, सूरत महानगर पालिका और राज्य सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया। सीधा सवाल किया है, किन नियमों के भीतर गेमिंग जोन को अनुमतियां दी गईं? क्या इनका सेफ्टी ऑडिट किया गया है? अगर किया गया तो कब? हाईकोर्ट के सवाल का जवाब सरकार कुछ भी दे, लेकिन इतने भर से अंदाजा समझ लीजिए कि अकेले सूरत में छह गेमिंग जोन ऐसे मिले हैं, जिन्होंने फायर और सेफ्टी की अनुमतियां ही नहीं ली हैं या फिर उनका ऑडिट ही नहीं हुआ है। कमियों की फेहरिस्त बहुत लंबी है, लेकिन इन्हें समय पर सुधारने की कोशिश क्यों नहीं होती है?
सरकार और प्रशासन से कोई बड़ी उम्मीद तो फिलहाल नहीं है, लेकिन होईकोर्ट ने जिस तरह से मामला संज्ञान लिया है…ऐसे में उम्मीद की जा सकती है कि प्रदेश में जिंदगी की कीमत पर कुछ तो निर्णय होगा। सवाल सिर्फ गेमिंग जोन भर का नहीं है, बहुमंजिला इमारतों और भीड़ भरे बाजारों का भी है। क्या वहां के इंतजामों को लेकर प्रशासन गंभीर है? अगर नहीं है तो अब उसके लिए याद कब आएगी? बेहतर हो कि हाईकोर्ट अब खुद जजों की कमेटी बनाकर सरकार को भविष्य का रोडमैप दिखाए और इस तरह के हादसों को रोकने के लिए सरकार और प्रशासन को संवेदनशील बनाए।