Editorial from Rajesh Gavade: ध्यान की राजनीति या राजनीति का ध्यान

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कन्याकुमारी में समुद्र की उस चट्टान को देखने से पहले स्वामी विवेकानंद ने कम से कम पांच साल तक भारत दर्शन किया था। इस दौरान स्वामीजी ने भारत की विविध धार्मिक परंपराओं, सामाजिक रीति-रिवाजों, शिक्षा प्रणाली आदि को करीब से देखा और समझा, इसके साथ-साथ लोगों की पीड़ा, गरीबी और उसके कारणों पर विचार किया। इसके बाद भारत के उत्थान के बारे में विचार किया।

खबर आई है कि आम चुनावों के आखिरी चरण के लिए प्रचार खत्म होने के बाद प्रधानमंत्री मोदी कन्याकुमारी में विवेकानंद स्मारक जाकर ध्यान में लीन होने वाले हैं। 30 मई को पंजाब में प्रचार करने के बाद वे सीधा तमिलनाडु जाएंगे। 31 मई से 1 जून तक श्री मोदी विवेकानंद रॉक मेमोरियल में बने ध्यान मंडपम में करीब 24 घंटों का ध्यान लगाएंगे। 132 साल पहले 1892 में स्वामी विवेकानंद ने समुद्र में जब यह शिला देखी थी, तो उससे प्रभावित हुए थे, वे तैर कर इस शिला पर पहुंचे और फिर 25, 26, 27 दिसंबर तीन दिनों तक यहां ध्यान लगाया था। कहा जाता है कि यहीं उन्हें भारत माता की दिव्य अवधारणा की अनुभूति हुई थी। पाठकों को पता ही होगा, स्वामी विवेकानंद का मूल नाम नरेन्द्र था, विवेकानंद नाम उन्हें आध्यात्म के रास्ते पर चलने के बाद मिला। अब यह तो परमात्मा ही जानें, या फिर खुद को परमात्मा का अंश बताने वाले नरेन्द्र मोदी जानें कि आगे जाकर वे अपने लिए कौन सा नाम चाहते हैं या फिर नरेन्द्र होकर ही उन्होंने वह सिद्धि हासिल कर ली है, जिसके लिए अनेक लोगों ने बरसों की तपस्या की है।

गौरतलब है कि नरेन्द्र मोदी इससे पहले 2019 में केदारनाथ की रुद्र गुफा में इसी तरह आखिरी चरण के मतदान के वक्त ध्यान करने पहुंचे थे। गेरुआ वस्त्र और आंखों पर लगा चश्मा, लेकिन बंद आंखों से कैमरे की उपस्थिति में किस तरह ध्यान लगाया, इसका रहस्य जानने को अब भी देश उत्सुक है। 2014 में भी श्री मोदी चुनाव प्रचार समाप्त होने के बाद शिवाजी के प्रतापगढ़ किले पहुंचे थे, जहां अफजल खान को शिवाजी ने बघनखा से मारा था। हालांकि इस जगह उन्होंने ध्यान तो शायद नहीं लगाया होगा, या फिर वे खुद को इतना सिद्ध मानते हैं कि वे उस जगह पर भी ध्यान लगा सकते हैं, जहां किसी की हत्या की गई हो। बहरहाल, 2015 में प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी कोलकाता के बेलूर मठ गए थे और उसी कमरे में कुछ देर ध्यान उन्होंने लगाया था, जहां स्वामी विवेकानंद ध्यान लगाया करते थे।

ध्यान की राजनीति या राजनीति का ध्यान, कुछ भी कहें, प्रधानमंत्री इस खेल के पुराने खिलाड़ी लगते हैं। इसलिए उनसे कुछ सवाल हैं। मसलन, इस बार ध्यान करने के लिए उन्होंने विवेकानंद स्मारक की क्यों चुना। क्या राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा की शुरुआत यहीं से की थी, और वे भी विवेकानंद मेमोरियल गए थे, इस वजह से श्री मोदी वहां पहुंच रहे हैं। भाजपा के एक नेता का दावा है कि यहां आकर श्री मोदी राष्ट्रीय एकता का संदेश देना चाहते हैं, क्योंकि यहां पूर्वी और पश्चिमी तट रेखाएं मिलती हैं।

लेकिन भौगोलिक एकता तो भारत में बनी ही हुई है, असल मसला तो भावनात्मक एकता का है। क्या श्री मोदी अपने ध्यान से इस एकता को मजबूत करने में कोई मदद कर सकते हैं। सवाल तो यह भी है कि नरेन्द्र मोदी पिछले तीन महीनों से लगातार चुनाव प्रचार में व्यस्त हैं, उससे पहले पांच साल अलग-अलग विधानसभा चुनावों, नगरीय निकायों और पंचायत चुनावों में व्यस्त रहे, और इस दौरान वक्त मिलने पर कभी विदेश यात्रा पर जाना पड़ा, कभी ट्रेनों को हरी झंडी दिखानी पड़ी और कभी नौकरी के नियुक्ति पत्र बांटने पड़े, तो अब उन्हें थोड़ी फुर्सत मिली, तो क्या बेहतर नहीं होता कि वे प्रधानमंत्री कार्यालय में थोड़ा वक्त गुजार लेते। 24 घंटे अपने कार्यालय में ही ध्यान कर लेते तो कुछ नहीं बिगड़ता। बल्कि तमिलनाडु तक जाने का खर्च बचता, और आम लोगों को भी तकलीफ नहीं होती, जिनके लिए श्री मोदी की यात्रा के दौरान विवेकानंद स्मारक बंद किया जा रहा है।

प्रधानमंत्री कार्यालय में श्री मोदी ध्यान करने बैठते तो शायद उन्हें देश की दशा और दिशा का ध्यान भी हो जाता। नरेन्द्र मोदी चाहते तो दिल्ली के आस-पास मथुरा-वृंदावन में ही ध्यान कर लेते। सारनाथ या बोधगया भी जा सकते थे या गुजरात में भी ध्यान के स्थलों की कमी नहीं है। लेकिन उनके मन में शायद यह बात आई हो कि अब मैंने खुद को परमात्मा का अंश बता दिया है तो विपक्ष के नेताओं या अपनी पार्टी या संघ में भी ऐसा कोई नहीं है, जिससे मैं होड़ कर सकूं, विश्वगुरु हूं तो दुनिया का भी कोई नेता मेरे मुकाबिल नहीं ठहरता, गांधी-नेहरू-पटेल-भगत सिंह से भी कोई वास्ता नहीं, तो फिर क्यों न सीधे स्वामी विवेकानंद से ही होड़ करूं। कोई आध्यात्मिक सिद्धि हासिल हो न हो, नाम तो हो ही जाएगा कि इस शिला पर दो नरेन्द्रों ने ध्यान लगाया था।

इससे पहले कि नरेन्द्र मोदी ध्यानमग्न हो जाएं, उनका ध्यान कुछ और जरूरी बातों की तरफ दिलाना जरूरी है। जैसे स्वामीजी को इस शिला पर ध्यान करते हुए भारत माता की जिस छवि के दर्शन हुए थे, आज उस छवि को अनेक खतरों और चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। राहुल गांधी ने संसद में अविश्वास प्रस्ताव के दौरान दिए अपने भाषण में मणिपुर की महिलाओं पर हुए अत्याचार का जिक्र कर भारत माता पर मंडराए इसी खतरे की ओर प्रधानमंत्री का ध्यान दिलाना चाहा था। तब तो राहुल गांधी को नसीहत मिल गई कि इस तरह भारत माता का नाम न लें। लेकिन श्री मोदी जब ध्यान के लिए आंखें बंद करेंगे तो क्या उन्हें मणिपुर की पीड़िताओं की वेदना महसूस हो पाएगी।

क्या उन्हें पुलवामा, गलवान और देश के अलग-अलग हिस्सों में शहीद हुए सैनिकों की विधवाओं, माताओं, बेटियों, बहनों के दुख में भारत माता का दुख नजर आएगा। क्या ध्यान करते हुए प्रधानमंत्री मोदी अपने इस पांच और पिछले पांच साल के कार्यकाल के बारे में भी विचार करेंगे। क्योंकि ध्यान के लिए आत्मशुद्धि जरूरी है और आत्मशुद्धि के लिए आत्ममंथन जरूरी है।

श्री मोदी क्या इस बात पर गौर करेंगे कि नोटबंदी के उनके फैसले से इस देश के आम आदमी को किस तकलीफ से गुजरना पड़ा है। इसके बाद एक झटके में लिए गए लॉकडाउन के फैसले ने देश में कैसी अफरा-तफरी मचा दी थी। अमीरी-गरीबी का भेद तो हमेशा से ही रहा है, लेकिन मार्च 2020 के बाद से यह भेद अपने क्रूर और विद्रूप रूप को निस्संकोच सामने ले आया। जहां संपन्न लोगों के लिए घरों में बंद रहकर परिजनों के साथ समय बिताना आसान था, लेकिन इसी दौरान तपती धूप में लाखों लोग पैदल घरों की तरफ निकल पड़े और न जाने कितने लोगों ने बेघर और बेरोजगार होकर कोरोना से ग्रसित हुए बिना ही दम तोड़ दिया।

क्या प्रधानमंत्री को गंगा के किनारे लगे लाशों के ढेर और देर रात तक श्मशान में जलते शव भी ध्यान की मुद्रा में दिखेंगे। क्या उन्हें दिल्ली की सीमाओं पर साल भर तक डटे किसानों के चेहरे ध्यान के दौरान नजर आएंगे या वे हताशा से भरे उन नौजवानों की सूरत नजर आएगी, जिन्होंने जीवन के सुनहरे साल नौकरी की तलाश में गंवा दिए। इन नौजवानों में बहुतों ने स्वामी विवेकानंद को अपना आदर्श बनाया होगा, जिन्होंने कहा था कि उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए। बेरोजगार, निराश नौजवानों के लक्ष्यों को मोदी सरकार की नीतियों ने किस तरह लील लिया, क्या इस पर मोदीजी ध्यान करेंगे।

कन्याकुमारी में समुद्र की उस चट्टान को देखने से पहले स्वामी विवेकानंद ने कम से कम पांच साल तक भारत दर्शन किया था। इस दौरान स्वामीजी ने भारत की विविध धार्मिक परंपराओं, सामाजिक रीति-रिवाजों, शिक्षा प्रणाली आदि को करीब से देखा और समझा, इसके साथ-साथ लोगों की पीड़ा, गरीबी और उसके कारणों पर विचार किया। इसके बाद भारत के उत्थान के बारे में विचार किया। नरेन्द्र मोदी के पास बतौर प्रधानमंत्री पूरे दस साल थे कि वे भी इसी तरह भारत को करीब से समझने की कोशिश करते।

लेकिन उन्होंने अपनी ऊर्जा और प्रधानमंत्री कार्यालय के संसाधनों का इस्तेमाल हिंदुत्व को बढ़ावा देने में ही लगा दिया। इसलिए अब कपड़ों से लोगों की पहचान के बाद उन्हें साप्ताहिक छुट्टियों का संबंध धर्म से जोड़ना पड़ रहा है। अवकाश रविवार को हो या शुक्रवार को या सप्ताह के किसी भी दिन हो, लोगों की मूल समस्याएं उससे हल नहीं होंगी।

जीवनस्तर तभी ऊंचा उठेगा, जब सरकार ईमानदारी से काम करे। 24 घंटों के ध्यान के दौरान नरेन्द्र मोदी इस सवाल पर भी गौर करें कि जब वे 18-18 घंटे काम करने का दावा करते हैं, उस के बाद भी उनके परिवारजनों को 5 किलो अनाज का मोहताज क्यों होना पड़ रहा है। क्यों गर्म हवाओं या ठिठुराती सर्दी में हाड़-तोड़ मेहनत करके दो वक्त की रोटी का इंतजाम नहीं हो पा रहा। क्यों अर्थव्यवस्था की गिरावट से लेकर मौसम के बिगड़ने की मार गरीबों को ही सहनी पड़ रही है। क्यों गंगा समेत देश की नदियां अब भी मैली हैं, क्यों पहाड़ धसक रहे हैं, क्यों जंगलों में आग फैल रही है।

बहुत सारे सवाल हैं मोदीजी, सब पर विचार करें तो ध्यान के 24 घंटे कम पड़ जाएंगे। लेकिन केवल आंखें मूंदना हो, तो कोई बात नहीं, देश तो 10 सालों से इन आंखों को यूं ही फिरते देखता आया है।

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