परिवार के जिन सदस्यों के लालन-पालन में अपनी सारी उम्र ही न्योछावर कर दी, समय आने पर वे अपने जीवन की जरूरतों को पूरा करने में संलग्न हो जाते हैं।
जीवन के आखरी पड़ाव तक आते आते बुढ़ापे में दो अलग-अलग बाते एक साथ हो जाती है :
(1) शरीर की शक्तियां कमजोर पड़ने लगती हैं।
(2) आदमी (भावात्मक रूप से) अकेला पड़ जाता है।
ऐसे समय में पत्नी की जरूरत ज्यादा होती है। वो ही तो है, जो बुढ़ापे की तुनक मिजाजी को समझ पाती है। इसे एक कहानी से समझते हैं। महात्मा गांधी के जीवन की एक घटना है। वे उस समय विदेश गए थे। उनके साथ पत्नी कस्तूरबा भी थीं। वहां गांधीजी के सम्मान में एक कार्यक्रम रखा गया था। जो व्यक्ति कार्यक्रम का संचालन कर रहा था, वह ये बात जानता था कि गुजराती में मां जैसी महिला को ‘बा’ कहा जाता है। मंच संचालक ने घोषणा की, ‘गांधीजी के साथ उनकी मां भी आई हुई हैं, हम उनका भी सम्मान करते हैं।’ वहां मौजूद लोग ये सुनकर घबरा गए। तुरंत मंच संचालक को एक चिट्ठी भेजी गई कि आपने गांधीजी की पत्नी को उनकी मां कह दिया है, भूल का सुधार करें। चिट्ठी देखकर संचालक भी घबरा गया।
फिर गांधीजी के संबोधन की बारी आई। गांधीजी भी मजाकिया स्वभाव के थे। उन्होंने कहा, ‘मंच संचालक भाई ने भले ही संबोधन में गलती की है, लेकिन उनकी बात बिल्कुल सच है। उन्होंने बा को मेरी मां बताया है। सच तो ये है कि इस उम्र में कस्तूरबा मेरी देखभाल ठीक इसी तरह करती हैं, जैसे कोई मां अपने बच्चे की देखभाल करती हैं।’ इसके बाद कार्यक्रम में गांधीजी ने इस रिश्ते की व्याख्या बहुत अच्छे तरीके से की थी।