जी कृष्णैया से लेकर मोहम्मद मुमताज तक… बिहार में अफसरों के कत्ल की अनकही कहानी, सिस्टम की साज़िश या नाकामी?

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बिहार में ईमानदार अफसरों की हत्याएं सिस्टम की कमजोरी को उजागर करती रही हैं. गोपालगंज के डीएम जी. कृष्णैया, एनएचएआई इंजीनियर सत्येंद्र दुबे, सीतामढ़ी के अभियंता योगेंद्र पांडेय और मुज़फ्फरपुर के इंजीनियर मोहम्मद मुमताज़. हर किसी को ईमानदारी की कीमत जान देकर चुकानी पड़ी. पढ़िए बिहार में भ्रष्टाचार, राजनीति और नक्सल हिंसा के बीच सरकारी और प्राइवेट कंपनियों के मुलाजिमों के खून की कहानी.

बिहार का इतिहास और संघर्ष से गहरा रिश्ता है. यह वो भूमि है, जहां विकास की राह में अपराध, नक्सलवाद और भ्रष्टाचार की काली छाया पड़ती रही है. आज़ादी के बाद से अब तक कई ईमानदार सरकारी अफसरों और कर्मचारियों को वहां अपनी जान गंवानी पड़ी क्योंकि उन्होंने ड्यूटी निभाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई.

गोपालगंज के डीएम जी. कृष्णैया से लेकर मुजफ्फरपुर के जूनियर इंजीनियर मोहम्मद मुमताज तक, ये कहानियां बिहार के सुशासन की कमजोरियों को उजागर करती हैं. ‘बिहार की क्राइम कथा’ सीरीज में इस बार पेश है, उन लोगों की अनकही दास्तान, जिन्होंने सच और इंसाफ के लिए अपनी जिंदगी कुर्बान कर दी. आइए, जानते हैं इन सभी अफसरों को बिहार में ईमानदारी की कीमत कैसे चुकानी पड़ी.

संघर्षों की धरती बिहार

बिहार में 1994 से 2025 तक दर्जनों ऐसे मामले सामने आए, जिनमें अफसरों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई. ये घटनाएं बिहार के सुशासन की कमजोरियों को उजागर करती हैं. आज हम इन सच्ची कहानियों को समय के क्रम से जानेंगे.

नक्सलवाद का उदय

सूबे में 1967 के नक्सलबाड़ी विद्रोह से नक्सलवाद की नीव पड़ी थी. बिहार में 1970-80 के दशक में यह आग फैलती चली गई. नक्सली गरीबों के लिए लड़ते थे, लेकिन सरकारी अफसरों पर हमले बढ़ते गए. भूमि सुधार और भ्रष्टाचार के खिलाफ ऐसे हमले होते थे. बिहार में वो दौर ऐसा था कि गया, जहानाबाद और औरंगाबाद जैसे जिलों में नक्सली सक्रिय हो गए थे. वे पुलिस और अफसरों को निशाना बनाते थे. कई प्रशासनिक और पुलिस अफसर भी उनका शिकार बने. नक्सलियों के हमले और हिंसा इलाके के विकास को रोकती रही. हालात ऐसे बन गए थे कि बिहार में कानून-व्यवस्था की नींव हिल गई थी.

1990 का दशक: नक्सली हमलों का चरम

नक्सली हमलों के मामले में 1990 का दशक ऐसा था कि उस दौर में खूब हमले हुए. 1993 में हैदराबाद में पीपुल्स वार ग्रुप ने डीआईजी के.एस. व्यास की हत्या कर दी थी. बिहार में साल 2000-2010 के बीच सैकड़ों पुलिसकर्मी मारे गए थे. नक्सली स्कूलों को बम से उड़ा देते थे. अफसरों पर सीधे हमले आम हो गए थे. विकास परियोजनाएं ठप होती जा रही थीं. मगर हालात ऐसे थे कि सरकार की कोशिशें भी कमजोर रहीं. अधिकांश हमले भूमि विवादों से जुड़े थे. वो दशक ऐसा था कि बिहार के ग्रामीण इलाकों में डर का राज कायम हो गया था. अफसरों की सुरक्षा पर बड़ा सवाल उठने लगा था. कोई सरकारी शख्स नक्सलियों के इलाके में महफूज नहीं था.

IAS जी. कृष्णैया की कहानी

जी. कृष्णैया की कहानी बिहार की राजनीतिक हिंसा का सबसे दर्दनाक चेहरा है. 1957 में तेलंगाना के महबूबनगर में एक भूमिहीन दलित परिवार में जन्मे थे जी. कृष्णैया. उनके पिता कुली थे, लिहाजा, खुद भी कृष्णैया कम उम्र में कुलीगिरी करने लगे थे. लेकिन उनका पढ़ाई की तरफ बहुत रुझान था. वो कड़ी मेहनत करते रहे और 1985 बैच के आईएएस अधिकारी बने. उन्होंने बिहार कैडर चुना था ताकि वो गरीबों की मदद कर सकें. उन्हें इस बात का बिल्कुल भी अहसास नहीं था कि बिहार में ही उनकी मौत लिखी थी. उन्हें वेस्ट चंपारण में पहली पोस्टिंग मिली, जहां डकैतों का आतंक हुआ करता था. भूमि सुधार पर शानदार काम किया. 1994 में राज्य सरकार ने उन्हें गोपालगंज का डीएम बनाया. गोपालगंज लालू प्रसाद यादव का गृह जिला था. वहां कृष्णैया ने गरीबों के अधिकारों को लेकर काफी काम किया

5 दिसंबर 1994 – भीड़ का कहर

उसी शाम जी. कृष्णैया हाजीपुर से एक बैठक में भाग लेकर वापस गोपालगंज लौट रहे थे. वह अपनी लालबत्ती वाली सरकारी कार में सवार थे. उनके साथ कार में सरकारी गनर और ड्राइवर थे. आगे हाइवे पर चल रहे हंगामे से वो अंजान थे. असल में 4 दिसंबर को उस इलाके का कुख्यात गैंगस्टर छोटन शुक्ला मारा गया था. उसका मर्डर हुआ था. इसी वजह से मुजफ्फरपुर में लोगों के बीच भारी नाराजगी थी. सरकार और पुलिस के खिलाफ सड़क पर प्रदर्शन हो रहा था. छोटन शुक्ला की लाश भी सड़क पर रखी थी. उस वक्त हाइवे पर हजारों लोग नारेबाजी कर रहे थे. जैसे ही गोपालगंज के डीएम की कार प्रदर्शनकारियों के करीब पहुंची तो वहां जमा लोग सरकारी कार देखकर भड़क उठे. फिर डीएम की कार पर पथराव हुआ. ड्राइवर और गनर ने डीएम कृष्णैया को बचाने की कोशिश की. लेकिन भीड़ के सामने वो टिक नहीं सके.

पीट-पीटकर DM की हत्या

इस दौरान कृष्णैया चीख-चीखकर भीड़ को बता रहे थे कि वह गोपालगंज के डीएम हैं, मुजफ्फरपुर के नहीं. लेकिन किसी ने उनकी एक नहीं सुनी. उन्हें जबरन कार से बाहर खींच लिया गया. उनके साथ मार-पीट की गई. हिंसक भीड़ ने खाबरा गांव के पास डीएम कृष्णैया को पीट-पीटकर मार डाला. पिटाई के दौरान उन्हें गोली भी मारी गई थी.

हत्याकांड का सदमा

आईएएस जी. कृष्णैया की हत्या ने पूरे देश को सन्न कर दिया था. मौत के वक्त वह सिर्फ 37 साल के थे. ऑटोप्सी में पता चला कि उनके सिर में दो गोलियां मारी गई थीं. जबकि उनका चेहरा पत्थरों से कूटा गया था. उनके ड्राइवर दीपक ने बताया था कि कृष्णैया ने आखिरी सांस तक बॉडीगार्ड और उसे बचाने की कोशिश की थी. इस वारदात के बाद वहां जातीय तनाव बढ़ गया था. बाद में गोपालगंज में उनकी मूर्ति लगाई गई. जिसे ईमानदारी की मिसाल के तौर पर देखा जाता है. अपराधियों को सजा मिलने में कई साल लगे. इसी के बाद राजनीतिक गुटों का गठजोड़ भी सामने आया. यह घटना दलित अफसरों पर खतरे का प्रतीक बन गई थी.

इंसाफ की लड़ाई

गोपालगंज के डीएम की हत्या के मामले में माफिया डॉन आनंद मोहन सिंह, उसकी पत्नी लवली आनंद और मुन्ना शुक्ला जैसे 36 आरोपी थे. साल 2007 में पटना कोर्ट ने आनंद मोहन को मौत की सजा सुनाई थी. साल 2008-2009 में पटना हाईकोर्ट ने उसकी मौत की सजा को उम्रकैद में बदल दिया. साल 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला कायम रखा. लेकिन साल 2023 में नीतीश सरकार ने जेल के नियम बदल डाले. और आनंद मोहन 14 साल बाद रिहा हो गया. उसकी रिहाई को लेकर बहुत विवाद हुआ. आईएएस एसोसिएशन ने उसकी रिहाई का विरोध किया. जी कृष्णैया की पत्नी उमा ने पीएम मोदी से भी अपील की. मगर राजनीतिक दबाव ने इंसाफ को प्रभावित कर दिया

नक्सली हिंसा में तेजी का दौर

दलित आईएएस जी कृष्णैया की मौत के बाद नक्सली हिंसा ने रफ्तार पकड़ ली. साल 1990 के दशक में बिहार के कई जिले नक्सल प्रभावित हो चुके थे. सरकारी निजी कंपनियों के अफसरों पर हमले आम हो गए थे. राज्य में तमाम विकास कार्य रुक गए थे. सरकार ने कई ऑपरेशन चलाए, लेकिन सफलता कम मिली. साल 2000 तक सैकड़ों जवान शहीद हो गए. नक्सली संगठन सीपीआई (माओवादी) ने हमलों और हत्याओं की जिम्मेदारी ली. भूमि सुधार के नाम पर हिंसा का नंगा नाच हुआ. बिहार पुलिस कमजोर पड़ चुकी थी. ये दौर अफसरों के लिए सबसे खतरनाक साबित हुआ और सुशासन की राह में बड़ा रोड़ा बना.

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